महर्षि अगस्त्य : वेदों के एक मन्त्रद्रष्टा ऋषि

महर्षि अगस्त्य : वेदों के एक मन्त्रद्रष्टा ऋषि

महर्षि अगस्त्य वेदों के एक मन्त्रद्रष्टा ऋषि हुए हैं।  इनके विशाल जीवन की समस्त घटनाओं का वर्णन नहीं किया जा सकता। यहां संक्षेपत: दो-चार घटनाओं का उल्लेख कर रहे हैं।

महर्षि अगस्त्य : वेदों के एक मन्त्रद्रष्टा ऋषि

लम्बी प्रतीक्षा :-

एक बार विन्ध्याचल पर्वत ने गगनपथगामी सूर्य का मार्ग रोक लिया। वह इतना ऊंचा हो गया कि सूर्य के आने-जाने का मार्ग ही अवरुद्ध हो गया। सूर्यदेव महर्षि अगस्त्य की शरण में गए और उन्हें पूरी बात बताई। अगस्त्य ने उन्हें आश्वासन दिया और स्वयं विन्ध्याचल के पास उपस्थित हुए। विन्ध्याचल ने बड़ी श्रद्धा-भक्ति से उन्हें नमस्कार किया।

महर्षि अगस्त्य ने कहा-“भाई ! मेरा तीर्थ करने के लिए दक्षिण दिशा में जाना आवश्यक है। परन्तु तुम्हारी ऊंचाई लांघकर जाना बेहद कठिन प्रतीत होता है, इसलिए कैसे जाऊं?”

उनकी बात सुनते ही विन्ध्याचल उनके चरणों में लोट गया। महर्षि अगस्त्य ने बड़ी सुगमता से उसे पार करके कहा कि अब जब तक मैं न लौट्रं तुम इसी प्रकार पड़े रहना। विन्ध्याचल ने बड़ी नम्रता और प्रसन्नता के साथ उनकी आज्ञा शिरोधार्य की। तब से महर्षि अगस्त्य लौटे ही नहीं और विन्ध्यायल उसी प्रकार पड़ा हुआ है।

अगस्त्य ने जाकर उज्जयिनी नगरी के शूलेश्वर तीर्थ की पूर्व दिशा में एक कुण्ड के पास शिवजी की आराधना की। भगवान शिव ने प्रसन्न होकर उन्हें प्रत्यक्ष दर्शन दिया। आज भी भगवान शंकर की मूर्ति वहां अगस्त्येश्वर के नाम से प्रसिद्ध है।

हाजमे का कमाल:-

एक बार भ्रमण करते-करते महर्षि अगस्त्य ने देखा कि कुछ लोग नीचे मुँह किए हुए, कुएं में लटक रहे हैं। पता लगाने पर मालूम हुआ कि ये उन्हीं के पितर और उनके उद्धार का उपाय यह है कि वे सन्तान उत्पन्न करें। बिना ऐसा किए पितरों का कष्ट मिटना असम्भव था। अतः उन्होंने विदर्भराज से पैदा हुई अपूर्व सुन्दरी और परम पतिव्रता लोपामुद्रा को पत्नी के रूप में स्वीकार किया।

उस समय इल्वल और वातापी नाम के दो दैत्यों ने बड़ा उपद्रव मचा रखा था। वे ऋषियों को अपने यहां निमन्त्रित करते थे। वातापी स्वयं भोजन बन जाता और जब ऋषि खा-पी चुक ते तब इल्वल बाहर से उसे पुकारता और वह उनका पेट फाड़कर निकल आता।

इस प्रकार महान ब्राह्मण संहार चल रहा था। भला, महर्षि अगस्त्य इसे कैसे सहन कर सकते थे? वे भी एक दिन उनके यहां अतिथि के रूप में उपस्थित हुए और फिर तो सर्वदा के लिए उसे पचा गए। इस प्रकार लोक का महान कल्याण हुआ।

समुद्र-पान:एक बार जब इन्द्र ने वृत्रासुर को मार डाला तब कालेय नाम के दैत्यों ने समुद्र का आश्रय लेकर ऋषि-मुनियों का विनाश करना आरम्भ कर दिया। वे दैत्य दिन में तो समुद्र में रहते और रात में निकलकर जंगलों में रहने वाले ऋषियों को खा जाते। उन्होंने वशिष्ठ, च्यवन, भारद्वाज सभी के आश्रमों पर जा-जाकर हजारों की संख्या में ऋषि-मुनियों को अपना आहार बना लिया था।

तब देवताओं ने महर्षि अगस्त्य की शरण ग्रहण की। उनकी प्रार्थना से और लोगों की व्यथा और हानि देखकर अगस्त्य ने अपने एक चुल्लू में ही सारे समुद्र को पी लिया। तब देवताओं ने जाकर कुछ दैत्यों का वध किया और कुछ भागकर पाताल चले गए।

अहंकार का दण्ड :-

एक बार ब्रह्महत्या के कारण इन्द्र के स्थानच्युत होने के कारण राजा नहुष को इन्द्र बनाया गया। इन्द्र होने पर अधिकार के मद से मत्त होकर उन्होंने इन्द्राणी को अपनी पत्नी बनाने की चेष्टा की। इन्द्राणी पतिव्रता थीं। जब नहुष ज्यादती पर उतर आए तो इन्द्राणी देवगुरु बृहस्पति की शरण में पहुंचीं। देवगुरु ने उन्हें एक युक्ति बताई।

क्यों भगवान शिव की अर्धपरिक्रमा ही करनी चाहिए ?

तब बृहस्पति की सम्मति से इन्द्राणी ने एक ऐसी सवारी से आने की बात कही जिस पर अब तक कोई सवार न हुआ हो। मदमत्त नहुष ने सवारी ढोने के लिए ऋषियों को ही बुलाया। ऋषियों को तो सम्मान-अपमान का कुछ खयाल था ही नहीं।

आकर सवारी में जुत गए। जब सवारी पर चढ़कर नहुष चले तब शीघ्रातिशीघ्र पहुंचने के लिए हाथ में कोड़ा लेकर ‘जल्दी चलो! जल्दी चलो! (सर्प, सर्प)’ कहते हुए उन ब्राह्मणों को विताड़ित करने लगे। यह बात महर्षि अगस्त्य से देखी नहीं गई। वे इनके मूल में नहुष का पतन और ऋषियों का कष्ट देख रहे थे। उन्होंने नहुष को उसके पापों का उचित दण्ड दिया। शाप देकर उसे एक महाकाय सर्प बना दिया और इस प्रकार समाज की मर्यादा सुदृढ़ रखी तथा धन-मद और पद-मद के कारण अन्धे लोगों की आंखें खोल दीं। क्यों भगवान शिव की अर्धपरिक्रमा ही करनी चाहिए ?

श्री राम का सत्कार :-

भगवान श्रीराम वनगमन के समय इनके आश्रम पर पधारे थे और इन्होंने बड़ी श्रद्धा, भक्ति एवं प्रेम से उनका सत्कार किया तथा उनके दर्शन, आलाप तथा संसर्ग से अपने ऋषि जीवन को सफल किया। साथ ही ऋषि ने उन्हें कई प्रकार के शस्त्रास्त्र दिए और सूर्य आराधना की पद्धति बताई। लंका के युद्ध में उनका उपयोग करके स्वयं भगवान श्रीराम ने उनके महत्व की अभिवृद्धि की। प्रेम लक्षणा भक्ति के मूर्तिमान स्वरूप भक्त सुतीक्षण इन्हीं के शिष्य थे। उनकी तन्मयता और प्रेम के स्मरण से आज भी लोग भगवान की ओर अग्रसर होते हैं। नवरात्रों के रूप में पूजी जाने वाली नव दुर्गा के बारे में विशेष जानकारी

लंका पर विजय प्राप्त करके जब भगवान श्रीराम अयोध्या को लौट आए और उनका राज्याभिषेक हआ तब महर्षि अगस्त्य वहां आए और उन्होंने भगवान श्रीराम को अनेक प्रकार की कथाएं सुनाईं। वाल्मीकीय रामायण के उत्तरकाण्ड की अधिकांश कथाएं इन्हीं के द्वारा कही हई हैं। इन्होंने उपदेश और सत्संकल्प के द्वारा अनेक का कल्याण किया। इनके द्वारा रचित अगस्त्य संहिता नाम का एक उपासना सम्बन्धी बड़ा सुन्दर ग्रन्थ है। जिज्ञासुओं को उसका अवलोकन करना चाहिए।