साधना में गुरु का कितना महत्व होता है ?
किसी भी प्रकार का कार्य हो उसमे गुरु का बहुत महत्व होता है, हम अक्षर ये सुनते रहते है गुरु के बिना ज्ञान नहीं होता है। इन्हे उपाध्याय भी कहा जाता है। उपाध्याय से बढ़कर कोई देवता नहीं हैं । क्योकि सभी तीर्थ और देवता उपाध्याय के दक्षिण चरण में समाहित होते हैं । किसी भी देवता से उपाध्याय की तुलना नहीं की जा सकती। इसलिए गुरु को देवता ही नहीं ब्रह्म विष्णु कहा गया हैं। इन्हे सबसे श्रेष्ठ कहा गया है, दिव्य कहा गया हैं,चैतन्य कहा गया हैंऔर पवित्रात्मा कहा गया हैं।
न श्रेष्टत्व गुरोर्मन्त्र न देवं गुरुवै सम:।।
अर्थात गुरु मंत्र से कुछ भी श्रेष्ठ नहीं हैं । यदि संसार में श्रेष्ठ्तम् मंत्र कोई हैं तो वह गुरु मंत्र हैं। क्योकि उस एक मंत्र से ही सब कुछ प्राप्त हो जाता हैं।
संसार की जितनी भी नदियां हैं जैसे गंगा, यमुना ,सरस्वती, सिंधु, कावेरी और जितने ही समुद्र है, मानसरोवर आदि जितनी भी झील हैं वे सभी उपाध्याय चरणों में समाहित हैं । इसलिए उपाध्याय के चरणों का मान करना समस्त तीर्थो का अवगाहन करना हैं। इसलिए उपाध्याय की तुलना की ही नहीं जा सकती क्योंकि ऐसा करना असंभव है। क्योकि जितने भी देवता हैं, मरुदगण हैं ,जितनी भी महा देवियाँ हैं, वे गुरु में ही समाहित हैं।
एक ही मंत्र से,एक ही ध्यान से ,एक ही धारणा से ,एक ही सेवा से समस्त देवताओं की पूजा-अर्चना हो जाती है। उपाध्याय-चरणों में कोटि-कोटि नमन
उपाध्याय को शरीर होते हुए भी ‘परब्रह्म’ क्यू कहा गया ? उपाध्याय का शरीर परमात्मा नहीं है। उपाध्याय के शरीर से बहनेवाला परम चैतन्य परमात्मा है , वो ही ‘गुरुतत्त्व’ है। हमारा ध्यान उपाध्याय के शरीर के ऊपर नहीं होना चाहिए। हमारा ध्यान उपाध्याय के भीतर से बहनेवाले ‘गुरुतत्त्व’ पे होना चाहिए। उस परम चैतन्य पे होना चाहिए। तब जाके साक्षात परब्रह्म की अनुभूति होगी।
।। गुरु -गीता अनुसार, आत्म ज्ञान हेतु शिष्य / साधक को गुरु मूर्ति का निरंतर ध्यान करना चाहिए ।।
गुरोर्मूर्तिं स्मरेन्नित्यं गुरोर्नाम सदा जपेत।
गुरोराज्ञा प्रकुर्वीत गुरोरन्यं न भावयेत्।।
निरन्तर शिष्य को उपाध्याय का ही चिन्तन करना चाहिए,उसे नित्य उपाध्याय के द्वारा प्रदत्त गुरु मंत्र का ही जप करना चाहिए,उसके जीवन का लक्ष्य केवल गुरु-आज्ञा का पालन करना ही है। उपाध्याय के अलावा उसके जीवन में अन्य किसी भी प्रकार का भाव या चिन्तन नहीं हो, इस बात का वह तत्क्षण और हर क्षण ध्यान रखे, ऐसा करने पर वह जीवन में सब कुछ प्राप्त करने में सक्षम और सफल हो पाता है,इन भावों का उदय शिष्य के सौभाग्य का प्रारम्भ है ।।
गुकारस् त्वन्धकारश्च रुकार स्तेज उच्यते।
अज्ञानं तारकं ब्रह्म गुरुरेव न संशयः।।
‘गुरु’ शब्द दो अक्षरों से मिलकर बना है। ‘गु’ का तात्पर्य है-“अंधकार” अर्थात समस्त प्रकार के शिष्य के बंधन,और ‘रु’ का तात्पर्य है-“तेज” अर्थात शिष्य के ह्रदय में ज्ञान का दीपक प्रज्जवलित करना। शिष्य के अज्ञान को समाप्त करने वाला यह गुरुत्व ब्रह्म से भिन्न नहीं है,यह शिष्य को जीवन की पूर्णता देने में सहायक है, इसीलिए ‘गुरु द्वारा प्रदत्त’ शब्द का मानसिक उच्चारण करना ही जीवन की पूर्णता माना गया है ।।
साधकेन प्रदातव्यम् गुरोः संतोष कारकम्।
गुरोराराधनं कार्यं स्व जीवित्वं निवेदयेत्।।
साधक का पहला और अंतिम कर्तव्य यही है, कि वह वही काम करे,जिससे कि उपाध्याय को संतोष की प्राप्ति हो सके,वह उसी प्रकार से सेवा करे,जैसी सेवा उपाध्याय को आवश्यक हो, वह उसी प्रकार से चिन्तन करे, जिस प्रकार से उपाध्याय आज्ञा दें। उसके जीवन में आराधना,पूजा,प्रार्थना,सेवा और साधना केवल गुरु की होनी चाहिए,ऐसा होने पर वह समस्त सिद्धियों का स्वामी हो जाता है और उसके जीवन में किसी भी प्रकार की कोई न्यूनता नहीं रह पाती ।।
श्वेताम्बरं श्वेत विलेप पुष्पं, मुक्ता विभूषं मुदितं द्विनेत्रम।
वामांक पीठ स्थित दिव्य शक्ति, मन्दस्मितं सान्द्रकृषा निधानम्।।
आनन्द मानन्द कर प्रसन्नं, ज्ञान स्वरूपं निजबोध युक्तम्।
योगीन्द्र मीड्यं भवरोग वैद्य, श्रीमद् गुरु नित्यमहं नमामि।।
यस्मादनुग्रहं लब्ध्वा, महदज्ञानमुत्सूजेत्।
तस्मै श्रीदेशिकेन्द्राय, नमश्चाभीष्ट सिद्धये ।।
सर्व श्रुति शिरोरत्न विराजित पदाम्बुज: |
वेदानताम्बुज सूर्यो यः तस्मै श्रीगुरुवे नम: ।।
ब्रह्मानन्द परम सुखद केवलं ज्ञान मूतिम्।
द्ंद्धातीतं गगन सदृशं तत्त्वमस्यादि लक्ष्यम्।।
एकं नित्य॑ विमलमचलं सर्व धी साक्षी भूतम ।
भावातीतं त्रिगुण रहित
सद् गुरु त॑ नमामि ।।
ध्यान मूल॑ गुरो मूर्ति:, पूजा मूल॑ गुरो पदम्।
मंत्र मूलं गुरो: वाक्यं मोक्ष मूल गुरो कृपा।।
उपाध्याय जिन्होंने श्वेत वस्त्र धारण किया हुआ है, जो श्वेत पुष्पों से एवं चन्दन से अर्थित हैं, जो मालाओं से विभूषिंत हैं, दोनों नेत्रों से जिनकी प्रसन्नता टपक रही है, जिनके वाम भाग के पास पीठ पर दिव्य शक्ति विराजमान हैं, जो मन्दहास से युक्त हैं, जो घनीभूत के निधान हैं। आनन्द को भी आनन्द देने वाले, सर्वदा प्रसन्न, ज्ञान स्वरूप, अपने ही बोध (ज्ञान) से युक्त, योगियों के द्वारा पूजनीय और जो भवरोग को दूर करने वाले वैद्य हैं, जिनके चरण “कमल द्वय” संसार के नाना प्रकार के द्वंद्ध, तापों का निवारण करते हैं अर्थात् सुख-दुःख, शीत-उष्ण, मान-अपमान, इनसे उत्पन्न कष्टों का निवारण करते हैं तथा सब प्रकार की आपत्तियों से रक्षा करते हैं, जिनका अनुग्रह प्राप्त होने पर महान् अज्ञान से छुटकारा मिल जाता है, उन उपाध्याय को अभीष्ट सिद्धि मुक्ति के लिये प्रणाम करता हूँ।
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जिन उपाध्याय के चरण कमल, चारों वेदों के महावाक्य प्रज्ञानं ब्रह्म (ऋग्वेद), अहं ब्रह्माउस्मि (युजरवेद), तत्त्वमसि (सामवेद), अयं आत्मा ब्रह्म (अथर्ववेद) रूपी रत्नों से सुशोभित हैं और जो वेदान्त रूपी कमल को विकसित करने के लिये सूर्य के समान हैं, ऐसे उपाध्याय को मैं प्रणाम करता हूँ। अपने उपाध्याय को मैं प्रणाम करता हूँ, जो ब्रह्म और आनन्द स्वरूप हैं, परम् सुख के प्रदाता हैं, अर्थात् जो केवल एक मात्र अद्वितीय हैं, जो ज्ञान मूर्ति हैं, सब द्धंद्वों से परे हैं, आकाश के समान व्यापक एवं असीम हैं। जो एक हैं, नित्य हैं, मल रहित हैं, अचल हैं, सब की बुद्धि के साक्षी हैं, भावातीत हैं त्रिगुणातीत हैं। ध्यान का मूल उपाध्याय की मूर्ति है, पूजा के मूल उपाध्याय के चरण कमल हैं। मंत्र का मूल उपाध्याय के वाक्य हैं तथा मोक्ष का मूल उपाध्याय की कृपा है। ऐसे महान सद्गुरुदेव के दर्शन-परसन व प्रवचन से अपने जीवन को धन्य करें। सभी प्रबुद्ध साधक उपाध्याय भाई बहन उपाध्याय के वचन मानकर साधना में नित नए सोपान अर्जित करेंगे।
गुरु | अध्यापक, आचार्य, उपाध्याय, शिक्षक |