हमें आरती कैसे करना चाहिए क्या है आरती का महत्व आरती कितने प्रकार की होती है

हमें आरती कैसे करना चाहिए क्या है आरती का महत्व आरती कितने प्रकार की होती है?

आरती, एक अनूठी धार्मिक प्रथा, हिन्दू धर्म में गहरी धार्मिक और सामाजिक महत्व रखती है। यह धार्मिक क्रिया पूजा के एक महत्वपूर्ण हिस्से के रूप में ली जाती है, जिसमें भक्त अपनी भक्ति और आदर्शता की भावना को प्रकट करता है।

आरती का प्रारंभ एक संकेतिक तरीके से होता है, जब पूजा के अवसर पर विशेष ध्यान और श्रद्धा के साथ दीपक की लौ प्रज्वलित की जाती है। इस रौशनी का अर्थ है सत्य, ज्ञान, और प्रकाश की ओर जाना, जिससे भक्त अपने आत्मा की अंधकार से प्रकाश की ओर पहुंच सकें। यह अद्वितीय क्षण होता है जब भक्त भगवान की प्रतिमा के सामने दीपक की लौ जलाता है, जिससे उसका मन शांति और आत्मा की प्राप्ति की ओर मुख्यतः दिशित होता है।

आरती की गाने की प्रक्रिया भी उतनी ही महत्वपूर्ण होती है। गीत संगीतमय तरीके से गाया जाता है, जिसमें भक्ति और प्रेम की भावना समेटी जाती है। इस गीत के माध्यम से भक्त अपनी श्रद्धा और आदर्शता का अभिव्यक्ति करता है, जिससे वह भगवान के सामने समर्पण और सम्मान की भावना से भरा हुआ महसूस करता है। यह भी एक तरह की संवाद की प्रक्रिया है, जिसमें भक्त अपनी आत्मा की गहराईयों से बातचीत करता है, जिससे उसकी आत्मा का शुद्धता से संपर्क होता है।

आरती का अर्थ यह भी होता है कि हम भगवान के सामने अपने सभी संकल्पों और समर्पण से प्रस्थित हैं। यह एक प्रकार की प्रार्थना है, जिसमें भक्त अपनी आत्मा को पवित्र और पवित्र बनाने के लिए भगवान से प्रार्थना करता है। इसमें उसकी आत्मा की शुद्धता और पवित्रता की आदान-प्रदान होती है, जिससे भक्त भगवान के सामने स्वयं को समर्पित करता है।

समाज में भी आरती की प्रथा सामाजिक एकता और समरसता की ओर प्रेरित करती है। जब सभी लोग मिलकर आरती गाते हैं, तो वहाँ कोई भी भेदभाव नहीं होता है। सभी भक्त एक साथ भगवान की प्रशंसा करते हैं, जिससे सामाजिक विश्वास और संबंध बढ़ते हैं।

इस प्रकार, आरती पूजा के इस महत्वपूर्ण रिटुअल में ढेरों महत्व और भावनाएँ संजोकर बसी होती हैं। यह धार्मिक प्रक्रिया भगवान के साथ नित्य जीवन में संवाद की भावना को उत्तेजित करती है और भक्त को आत्मनिर्भरता, आत्मविश्वास, और शांति की प्राप्ति में मदद करती है। इसलिए, आरती का आयोजन पूजा के बाद जरूरी है, ताकि हम अपनी भक्ति और समर्पण की भावना को संजीवनी प्रदान कर सकें और अपने आत्मा को ईश्वर के प्रति समर्पित कर सकें।

हमें आरती कैसे करना चाहिए क्या है आरती का महत्व आरती कितने प्रकार की होती है?
पूजा के बाद क्यों जरूरी है आरती ?
हिन्दू धर्म मे पूजा उपरांत आरती करने का विशेष महत्त्व है इसके बिना कोई भी पूजा पूर्ण नही मानी जाती मान्यता के अनुसार जो त्रुटि पूजन में रह जाती है वह आरती में पूरी हो जाती है।
आरती का धार्मिक महत्व होने के साथ ही वैज्ञानिक महत्व भी है। याद कीजिए आरती की थाल में कौन कौन सी वस्तुओं का प्रयोग किया जाता है। आपके दिमाग में रुई, घी, कपूर, फूल, चंदन जरूर आ गया होगा। रुई शुद्घ कपास होता है इसमें किसी प्रकार की मिलावट नहीं होती है। इसी प्रकार घी भी दूध का मूल तत्व होता है। कपूर और चंदन भी शुद्घ और सात्विक पदार्थ है।
जब रुई के साथ घी और कपूर की बाती जलाई जाती है तो एक अद्भुत सुगंध वातावरण में फैल जाती है। इससे आस-पास के वातावरण में मौजूद नकारत्मक उर्जा भाग जाती है और सकारात्मक उर्जा का संचार होने लगता है।
आरती में बजने वाले शंख और घड़ी-घंटी के स्वर के साथ जिस किसी देवता को ध्यान करके गायन किया जाता है उसके प्रति मन केन्द्रित होता है जिससे मन में चल रहे द्वंद का अंत होता है। हमारे शरीर में सोई आत्मा जागृत होती है जिससे मन और शरीर उर्जावान हो उठता है। और महसूस होता है कि ईश्वर की कृपा मिल रही है।
स्कन्द पुराण में कहा गया है
मन्त्रहीनं क्रियाहीनं यत् कृतं पूजनं हरे:।
सर्वं सम्पूर्णतामेति कृते निराजने शिवे।।
अर्थात – पूजन मंत्रहीन तथा क्रियाहीन होने पर भी नीराजन (आरती) कर लेने से उसमे सारी पूर्णता आ जाती है।
आरती करने का ही नहीं, देखने का भी बड़ा पूण्य फल प्राप्त होता है। हरि भक्ति विलास में एक श्लोक है-
नीराजनं च यः पश्येद् देवदेवस्य चक्रिण:।
सप्तजन्मनि विप्र: स्यादन्ते च परमं पदम।।
अर्थात – जो भी देवदेव चक्रधारी श्रीविष्णु भगवान की आरती देखता है, वह सातों जन्म में ब्राह्मण होकर अंत में परम् पद को प्राप्त होता है।
श्री विष्णु धर्मोत्तर में कहा गया है
धूपं चरात्रिकं पश्येत काराभ्यां च प्रवन्देत।
कुलकोटीं समुद्धृत्य याति विष्णो: परं पदम्।।
अर्थात – जो धुप और आरती को देखता है और दोनों हाथों से आरती लेता है, वह करोड़ पीढ़ियों का उद्धार करता है और भगवान विष्णु के परम पद को प्राप्त होता है।
आरती में पहले मूल मंत्र (जिस देवता का, जिस मंत्र से पूजन किया गया हो, उस मंत्र) के द्वारा तीन बार पुष्पांजलि देनी चाहिये और ढोल, नगाड़े, शख्ङ, घड़ियाल आदि महावाद्यो के तथा जय-जयकार के शब्दों के साथ शुभ पात्र में घृत से या कर्पूर से विषम संख्या में अनेक बत्तियाँ जलाकर आरती करनी चाहिए।
ततश्च मुलमन्त्रेण दत्त्वा पुष्पाञ्जलित्रयम्।
महानिराजनं कुर्यान्महावाद्यजयस्वनैः।।
प्रज्वलेत् तदर्थं च कर्पूरेण घृतेन वा।
आरार्तिकं शुभे पात्रे विषमानेकवर्दिकम्।।
अर्थात – साधारणतः पाँच बत्तियों से आरती की जाती है, इसे ‘पञ्चप्रदीप’ भी कहते है। एक, सात या उससे भी अधिक बत्तियों से आरती की जाती है। कर्पूर से भी आरती होती है।
पद्मपुराण में कहा है
कुङ्कुमागुरुकर्पुरघृतचंदननिर्मिता:।
वर्तिका: सप्त वा पञ्च कृत्वा वा दीपवर्तिकाम्।।
कुर्यात् सप्तप्रदीपेन शङ्खघण्टादिवाद्यकै:।
अर्थात – कुङ्कुम, अगर, कर्पूर, घृत और चंदन की पाँच या सात बत्तियां बनाकर शङ्ख, घण्टा आदि बाजे बजाते हुवे आरती करनी चाहिए।
आरती के पाँच अंग होते है।
पञ्च नीराजनं कुर्यात प्रथमं दीपमालया।
द्वितीयं सोदकाब्जेन तृतीयं धौतवाससा।।
चूताश्वत्थादिपत्रैश्च चतुर्थं परिकीर्तितम्।
पञ्चमं प्रणिपातेन साष्टाङ्गेन यथाविधि।।
अर्थात – प्रथम दीपमाला के द्वारा, दूसरे जलयुक्त शङ्ख से, तीसरे धुले हुए वस्त्र से, आम व् पीपल अदि के पत्तों से और पाँचवे साष्टांग दण्डवत से आरती करें।
आदौ चतुः पादतले च विष्णो द्वौं नाभिदेशे मुखबिम्ब एकम्।
सर्वेषु चाङ्गेषु च सप्तवारा नारात्रिकं भक्तजनस्तु कुर्यात्।।
अर्थात – आरती उतारते समय सर्वप्रथम भगवान की प्रतिमा के चरणों में उसे चार बार घुमाए, दो बार नाभिदेश में, एक बार मुखमण्डल पर और सात बार समस्त अंङ्गो पर घुमाए।
यथार्थ में आरती पूजन के अंत में इष्टदेवता की प्रसन्नता के हेतु की जाती है। इसमें इष्टदेव को दीपक दिखाने के साथ ही उनका स्तवन तथा गुणगान किया जाता है। आरती के दो भाव है जो क्रमशः ‘नीराजन’ और ‘आरती’ शब्द से व्यक्त हुए है। नीराजन (निःशेषण राजनम् प्रकाशनम्) का अर्थ है- विशेषरूप से, निःशेषरूप से प्रकाशित करना। अनेक दिप-बत्तियां जलाकर विग्रह के चारों ओर घुमाने का यही अभिप्राय है कि पूरा-का-पूरा विग्रह एड़ी से चोटी तक प्रकाशित हो उठे- चमक उठे, अंङ्ग-प्रत्यङ्ग स्पष्ट रूप से उद्भासित हो जाये, जिसमें दर्शक या उपासक भलिभांति देवता की रूप-छटा को निहार सके, हृदयंगम कर सके। दूसरा ‘आरती’ शब्द (जो संस्कृत के आर्ति का प्राकृत रूप है और जिसका अर्थ है अरिष्ट) विशेषतः माधुर्य-उपासना से सम्बंधित है।
आरती-वारना का अर्थ है आर्ति-निवारण, अनिष्ट से अपने प्रियतम प्रभु को बचाना। इस रूप में यह एक तांत्रिक क्रिया है, जिसमे प्रज्वलित दीपक अपने इष्टदेव के चारों ओर घुमाकर उनकी सारी विघ्न बधाये टाली जाती है। आरती लेने से भी यही तात्पर्य है कि उनकी आर्ति (कष्ट) को अपने ऊपर लेना। बलैया लेना, बलिहारी जाना, बली जाना, वारी जाना न्यौछावर होना आदि प्रयोग इसी भाव के द्योतक है। इसी रूप में छोटे बच्चों की माताए तथा बहिने लोक में भी आरती उतारती है। यह आरती मूल रूप में कुछ मंत्रोच्चारण के साथ केवल कष्ट-निवारण के लिए उसी भाव से उतारी जाती रही है।
आज कल वैदिक उपासना में उसके साथ-साथ वैदिक मंत्रों का उच्चारण भी होता है तथा पौराणिक एवं तांत्रिक उपासना में उसके साथ सुंदर-सुंदर भावपूर्ण पद्य रचनाएँ भी गायी जाती है। ऋतू, पर्व पूजा के समय आदि भेदों से भी आरती गायी जाती है। बिना मंत्र के किए गए पूजन में भी आरती कर लेने से पूर्णता आ जाती है।
1.आरती दीपक से क्यों- रुई के साथ घी की बाती जलाई जाती है। घी समृद्धि प्रदाता है। घी रुखापन दूर कर स्निग्धता प्रदान करता है। भगवान को अर्पित किए गए घी के दीपक का मतलब है कि जितनी स्निग्धता इस घी में है। उतनी ही स्निग्धता से हमारे जीवन के सभी अच्छे कार्य बनते चले जाएं। कभी किसी प्रकार की रुकावटों का सामना न करना पड़े।
2.आरती में शंख ध्वनि और घंटा ध्वनि क्यों- आरती में बजने वाले शंख और घंटी के स्वर के साथ,जिस किसी देवता को ध्यान करके गायन किया जाता है। उससे मन एक जगह केन्द्रित होता है,जिससे मन में चल रहे विचारों की उथल-पुथल कम होती जाती है। शरीर का रोम-रोम पुलकित हो उठता है,जिससे शरीर और ऊर्जावान बनता है।
3.आरती कर्पूर से क्यों- कर्पूर की महक तेजी से वायुमंडल में फैलती है। ब्रह्मांड में मौजूद सकारात्मक शक्तियों(दैवीय शक्तियां)को यह आकर्षित करती है। आरती वह माध्यम है जिसके द्वारा देवीय शक्ति को पूजन स्थल तक पहुंचने का मार्ग मिल जाता है।
4 आरती करते हुए भक्त के मन में ऐसी भावना होनी चाहिए कि मानो वह पंच-प्राणों (पूरे मन के साथ) की सहायता से ईश्वर की आरती उतार रहा हो। घी की ज्योति को आत्मा की ज्योति का प्रतीक मानना चाहिए। यदि भक्त अंतर्मन से ईश्वर को पुकारते हैं तो यह पंचारती कहलाती है।
5 आरती दिन में एक से पांच बार की जा सकती है। घरों में आरती दो बार की जाती है। प्रातःकालीन आरती और संध्याकालीन आरती।
6 दीपभक्ति विज्ञान के अनुसार आरती से पहले भगवान को नमस्कार करते हुए तीन बार फूल अर्पित करना चाहिए।
7 उसके बाद एक दीपक में शुद्ध घी लेकर उसमें विषम संख्या में यानी कि 3, 5 या 7 बत्तियां जलाकर आरती करनी चाहिए। सामान्य तौर पर पांच बत्तियों से आरती की जाती है,जिसे पंच प्रदीप भी कहते हैं। इसके बाद कर्पूर से आरती की जाती है। कर्पूर का धुंआ वायुमंडल में जाकर मिलता है। यहां धुआं हमारे पूजन कार्य को ब्रंह्माडकीय शक्ति तक पहुंचाने का कार्य करता है।
8 किसी विशेष पूजन में आरती पांच चीजों से की जा सकती है। पहली धूप से, दूसरी दीप से, तीसरी धुले हुए वस्त्र से, कर्पूर से,पांचवी जल से।
कैसे सजाना चाहिए आरती का थाल
आरती के थाल में एक जल से भरा लोटा, अर्पित किए जाने वाले फूल, कुमकुम, चावल, दीपक, धूप, कर्पूर, धुला हुआ वस्त्र, घंटी, आरती संग्रह की किताब रखी जाना चाहिए। थाल में कुमकुम से स्वस्तिक की आकृति बना लें। थाल पीतल या तांबे का लिया जाना चाहिए।
आरती करने की विधि:-
1 भगवान के सामने आरती इस प्रकार से घुमाते हुए करना चाहिए कि ऊँ जैसी आकृति बने।
2 अलग-अलग देवी-देवताओं के सामने दीपक को घुमाने की संख्या भी अलग है, जो इस प्रकार है।
भगवान शिव के सामने तीन या पांच बार घुमाएं।
भगवान गणेश के सामने चार बार घुमाएं।
भगवान विष्णु के सामने बारह बार घुमाएं।
भगवान रूद्र के सामने चौदह बार घुमाएं।
भगवान सूर्य के सामने सात बार घुमाएं।
भगवती दुर्गा जी के सामने नौ बार घुमाएं।
अन्य देवताओं के सामने सात बार घुमाएं।
यदि दीपक को घुमाने की विधि को लेकर कोई उलझन हो रही हो तो आगे दी गई विधि से किसी भी देवी या देवता की आरती की जा सकती है।
3 आरती अपनी बांई ओर से शुरू करके दाईं ओर ले जाना चाहिए। इस क्रम को सात बार किया जाना चाहिए। सबसे पहले भगवान की मूर्ति के चरणों में चार बार, नाभि देश में दो बार और मुखमंडल में एक बार घुमाना चाहिए। इसके बाद देवमूर्ति के सामने आरती को गोलाकार सात बार घुमाना चाहिए।
4 पद्म पुराण में आरती के लिए कहा गया है कि कुंकुम, अगर, कपूर, घी और चन्दन की सात या पांच बत्तियां बनाकर अथवा रुई और घी की बत्तियां बनाकर शंख, घंटा आदि बजाते हुए आरती करनी चाहिए।
5 भगवान की आरती हो जाने के बाद थाल के चारों ओर जल घुमाया जाना चाहिए, जिससे आरती शांत की जाती है।
6 भगवान की आरती सम्पन्न हो जाने के बाद भक्तों को आरती दी जाती है। आरती अपने दाईं ओर से दी जानी चाहिए।
7 सभी भक्त आरती लेते हैं। आरती लेते समय भक्त अपने दोनों हाथों को नीचे को उलटा कर जोड़ते हैं। आरती पर से घुमा कर अपने माथे पर लगाते हैं। जिसके पीछे मान्यता है कि ईश्वरीय शक्ति उस ज्योत में समाई रहती हैं। जिस शक्ति का भाग भक्त माथे पर लेते हैं। एक और मान्यता के अनुसार इससे ईश्वर की नजर उतारी जाती है। जिसका असली कारण भगवान के प्रति अपने प्रेम व भक्ति को जताना होता है।