सूरदास जी भगवान कृष्ण के ऐसे भक्त जिन्होंने अपनी मधुर वाणी से भारत के कोने कोने में ही नहीं विदेशों में भी दिल को छू लेने वाली वाणी से सबका मन मोह लिया। सूरदास जी का जन्म ब्रजभूमि के पास ही श्रीनगर महुआ गांव में हुआ। उनके पिता ब्राह्मण थे लेकिन बहुत गरीब थे। पेट भर खाना भी नहीं मिलता था। जब सूरदास जी के माता पिता को यह ज्ञान हुआ कि उनका बेटा अंधा है तो वह बहुत दुखी हुए। उनकी सारी उम्मीदों पर पानी फिर गया। उनके माता-पिता ने उनका कोई नाम भी नहीं रखा। अंधा पुकारते पुकारते उनका नाम सूरदास पड़ गया।
सूरदास जी अपनी माता को घुमाने के लिए लेकर चलने के लिए कहते तो माता उनकी खूब पिटाई करती। तुम तो अंधे हो कहां घूमने जाओगे। एक दिन पिताजी ने बहुत मारा तो सूरदास जी ने अपने पिता से कहा कि मैं आप लोगों पर बोझ हूं मेरी वजह से आपको तकलीफ हो रही है। मेरे कारण से ही आपको क्रोध आता है मैं आपको दुखी नहीं देख सकता मैं अभी इसी समय घर छोड़कर जा रहा हूं। मैंने प्रभु का नाम सुना है अब उसके सहारे मैं यहां से जा रहा हूं। यदि प्रभु की इच्छा होगी तो वह मेरी रक्षा करेंगे। उस समय सूरदास जी की आयु 5 वर्ष की हुई थी। माता-पिता के मन में तो यही था कि यह अंधा है इसको कौन अपने पास रखेगा। अपने आप वापस आ जाएगा।
लेकिन सूरदास जी के मन में एक ही पुकार थी, मेरे प्रियतम मेरे श्याम जिसका उसने नाम सुन रखा था उनके भीतर अनोखी तिरंगे उठती थी। सूरदास जी प्रभु को पुकारते हैं। उन्हें ज्ञान था कि प्रभु के सिवाय उनका कोई और नहीं है। सूरदास जी मन ही मन सोचते कि माता ने मुझे जन्म दिया मुझे छोड़ दिया। प्रभु से कहते हैं हे मेरे प्रभु तुम उन पर भी आशीष करना। इस संसार में तुम्हारे सिवा मेरा कोई नहीं है। मैं तो तुम्हारी और देख रहा हूं। सूरदास जी प्रभु से प्रार्थना करते हैं मैंने अनेक दुख देखे हैं मार खाई है पर मेरे मन में एक ही तड़प है कि मैं तुम्हारे दर्शन करूं। मैं अंधा हूं फिर भी हे प्रभु तुम्हारे दर्शन करना चाहता हूं। मेरे मन में बस एक ही तड़प है, सूरदास जी ने भगवान कृष्ण को पूर्ण समर्पण कर दिया।
भगवान की कृपा से सूरदास जी की अंतरात्मा की तीसरी आंख खुल गई और वह इतिहास के पन्नों में सबसे बड़े महाकवि माने गए। सूरदास जी के अनुसार.. भगवान श्रीकृष्ण के अनुग्रह से मनुष्य को सद्गति मिल सकती है। अटल भक्ति कर्म भेद, जातिभेद, ज्ञान, योग से श्रेष्ठ है। सूरदास जी ने वात्सल्य, श्रृंगार और शांत रसों को मुख्य रूप से अपनाया है। सूरदास जी ने अपनी कल्पना और प्रतिभा के सहारे कृष्ण के बाल्य-रूप का अति सुन्दर, सरस,सजीव और मनोवैज्ञानिक वर्णन किया है। बालकों की चपलता, स्पर्धा, अभिलाषा, आकांक्षा का वर्णन करने में विश्व व्यापी बाल-स्वरूप का चित्रण किया है।
मैया कबहिं बढैगी चौटी?
किती बार मोहिं दूध पियत भई,
यह अजहूँ है छोटी।
सूर के कृष्ण प्रेम और माधुर्य प्रतिमूर्ति है। जिसकी अभिव्यक्ति बड़ी ही स्वाभाविक और सजीव रूप में हुई है।
हमारे प्रभु औगुन चित न धरौ।
समदरसी है मान तुम्हारौ,
सोई पार करौ।
प्रेम के स्वच्छ और मार्जित रूप का चित्रण भारतीय साहित्य में किसी और कवि ने नहीं किया है यह सूरदास की अपनी विशेषता है। वियोग के समय राधिका का जो चित्र सूरदास ने चित्रित किया है, वह इस प्रेम के योग्य है,सूरदास जी का भ्रमर गीत, वियोग-शृंगार का ही उत्कृष्ट ग्रंथ नहीं है, उसमें सगुण और निर्गुण का भी विवेचन हुआ है। इसमें विशेषकर उद्धव-गोपी संवाद। सूरदास काव्य में प्रकृति-सौंदर्य हास्य का सूक्ष्म और सजीव वर्णन मिलता है। अलंकार-योजना की दृष्टि से भी उनका कला-पक्ष सबल है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने सूरदास की कवित्व-शक्ति के बारे में लिखा है।
सूरदास जब अपने प्रिय विषय का वर्णन शुरू करते हैं तो मानो अलंकार-शास्त्र हाथ जोड़कर उनके पीछे-पीछे दौड़ा करता है। उपमाओं की बाढ़ आ जाती है, रूपकों की वर्षा होने लगती है। इस प्रकार हम देखते हैं कि सूरदास हिंदी साहित्य के महाकवि हैं, क्योंकि उन्होंने न केवल भाव और भाषा की दृष्टि से साहित्य को सुसज्जित किया, वरन् कृष्ण-काव्य की विशिष्ट परंपरा को भी जन्म दिया।
श्री कृष्ण की भक्ति में लीन रहने वाले सूरदास जी भक्ति काल के सगुण धारा के महाकवि थे।
सूरदास जी, को हिन्दी साहित्य की अच्छी जानकारी थी इसलिए उन्हें हिन्दी साहित्य का विद्वान माना जाता है।
मैं नहीं माखन खायो मैया।
मैं नहीं माखन खायो।
ख्याल परै ये सखा सबै मिली
मेरैं मुख लपटायो।।
देखि तुही छींके पर
भजन ऊँचे धरी लटकायो।
हौं जु कहत नान्हें कर अपने
मैं कैसे करि पायो।।
मुख दधि पोंछी बुध्दि
एक किन्हीं दोना पीठी दुरायो।
डारी सांटी मुसुकाइ जशोदा
स्यामहिं कंठ लगायो।।
बाल बिनोद मोद मन मोह्यो
भक्ति प्राप दिखायो।
सूरदास जसुमति को यह सुख
सिव बिरंचि नहिं पायो।।”
सूरदास का अत्यंत प्रचलित पद राग रामकली में बद्ध हैं। श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं में माखन चोरी की लीला सुप्रसिद्ध है। वैसे तो कान्हा ग्वालिनों के घरों में जाकर माखन चुराकर खाया करते थे। लेकिन आज उन्होंने अपने ही घर में माखन चोरी की और यशोदा मैया ने उन्हें देख लिया। यशोदा मैया ने देखा की कान्हा ने माखन खाया हैं तो उन्होंने कान्हा से पूछा की क्यों रे कान्हा! तूने माखन खाया है क्या? तब बालकृष्ण ने अपना पक्ष किस तरह मैया के सामने रखा कन्हैया बोले-
मैया! मैंने माखन नहीं खाया हैं। मुझे तो ऐसा लगता हैं की ग्वाल-बालों ने ही बलात मेरे मुख पर माखन लगा दिया है।
फिर बोले की मैया तू ही सोच, तूने यह छींका किना ऊंचा लटका रखा हैं मेरे हाथ भी नहीं पहुच सकते हैं।
कन्हैया ने मुख से लिपटा माखन पोंछा और एक दोना जिसमें माखन बचा था उसे छिपा लिया।
कन्हैया की इस चतुराई को देखकर यशोदा मन ही मन में मुस्कुराने लगी और कन्हैया को गले से लगा लिया। सूरदासजी कहते हैं यशोदा मैया को जिस सुख की प्राप्ति हुई वह सुख शिव व ब्रम्हा को भी दुर्लभ हैं। श्री कृष्ण की भक्ति में लीन रहने वाले सूरदास जी ने अपनी रचनाओं में भगवान् श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं का सुंदर और भावभिवोर वर्णन कर यह सिद्ध किया हैं कि भक्ति का प्रभाव कितना गहरा और महत्वपूर्ण हैं। इसके साथ ही सूरदास जी ने समाज के सामने ईश्वर की गाथा का अत्यंत सुंदर बखान किया है।
सूरदास जी की रचनाओं में कृष्ण भक्ति का भाव उजागर होते हैं। वहीं उन्होंने अपनी रचनाओं में श्री कृष्ण की बाल लीलाओं और उनके सुंदर रूप का इस तरह वर्णन किया है कि मानो उन्होंने खुद अपनी आंखों से नटखट कान्हा की लीलाओं को देखा हो।
जो एक बार भी सूरदास जी की रचनाओं को पढ़ता है वो कृष्ण की भक्ति में डूब जाता है।
उन्होंने अपनी रचनाओं में भगवान श्री कृष्ण के रुप का वर्णन श्रृंगार और शांत रस में किया है।
सूरदास जी कहते है कि भक्तों के लिए भगवान का स्वभाव सदैव एक-सा रहता है।
भगवान श्रीकृष्ण अपनी गम्भीरता एवं उदारता में समुद्र के समान हैं और जो ज्ञानियों के शिरोमणि है, उनके भी स्वामी है। उनका भक्त यदि तिनके के बराबर भी अच्छा कार्य करता है तो वे उसे सुमेरू पर्वत के समान बड़ा भारी कार्य मान लेते है और यदि उनका भक्त समुद्र के समान विशाल या भारी अपराध कर देता है तो भगवान उसे बड़े संकोच के साथ बूॅद के समान बहुत छोटा ही मानते हैं। जब उनका कोई भक्त उनके समक्ष अर्थात उनकी शरण में जाता है तो उनका विमुख हो जाता है तो भी उनका वैसा ही प्रसन्न मुख दिखाई देता है वे एक क्षण के लिए भी अपनी कृपा दृष्टि हटाते नही है। यही प्रभु का स्वभाव है जो भक्त के सम्मुख या विमुख होने पर सदैव एक-सा रहता है भक्तवत्सल, करूणामय भगवान अपने भक्त के विरह में दुखी होकर उसके पीछे-पीछे भागते है। सूरदास जी कहते है की ऐसे उदार स्वामी से जो विमुख हो जाते है उनसे बड़ा दुर्भाग्यशाली कोई नही है।